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NATO summits importance to India

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भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा इस बार नाटो शिखर सम्मेलन

दो उत्तरी अमेरिकी और 28 यूरोपीय देशों के उत्तर अटलांटिक संधि संगठन 'नाटो' का भारत के लिए अब तक कोई महत्व नहीं रहा है। लेकिन, बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में स्थित नाटो के मुख्यालय में 14 जून से होने जा रहा उसका नया शिखर सम्मेलन इस बार भारत के लिए भी अपूर्व महत्व का सिद्ध हो सकता है। भारत उसकी कार्यसूची में नहीं है, तब भी सम्मेलन में चर्चित रणनीतियों एवं निर्णयों का भारत की विदेश और रक्षानीति पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है।

कैसे पड़ेगा प्रभाव और क्यों है भारत के लिए महत्वपूर्ण?
कारण भारत नहीं, चीन है। चीन की बढ़ती हुई आक्रमक सैन्य गतिविधियों से नाटो के हाथ-पैर फूल रहे हैं। एक सैन्य संगठन के रूप में नाटो, अमेरिकी नेतृत्व में, 52 वर्ष पूर्व, 4 अप्रैल 1949 के दिन बना था। इस विचार से बना था कि उस समय का कम्युनिस्ट सोवियत संघ (आज का रूस) पश्चिमी यूरोप के किसी देश पर आक्रमण करने का दुस्साहस न कर सके।



द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अमेरिका और सोवियत संघ मिलकर जर्मनी के हिटलर से लड़े थे। किंतु 1945 में युद्ध का अंत होते ही जर्मनी ही नहीं, पूरे यूरोप का भी बंटवारा हो गया। पूर्वी यूरोप के जिन देशों को सोवियत लाल सेना ने हिटलर के क़ब्ज़े से मुक्ति दिलाई थी, वहां कम्युनिस्ट सरकारें बनीं। पश्चिमी यूरोप के जिन देशों को अमेरिका और ब्रिटेन ने मुक्ति दिलाई थी, वहां पूंजीवादी लोकतांत्रिक सरकारें बनीं। दोनों विचारधारओं के बीच का पुराना टकराव फिर से शुरू हो गया, जिसे 'शीतयुद्ध' के नाम से जाना जाता है।
इस 'शीतयुद्ध' का अंत जर्मनी और यूरोप के विभाजन की प्रतीक बर्लिन-दीवार नवंबर 1989 में गिरते ही, 15 देशों वाले सोवियत संघ सहित, पूर्वी यूरोप की सभी कम्युनिस्ट सरकारों के पतन के साथ हुआ। सोवियत संघ के विघटन से शेष बचे रूस को छोड़कर उस समय के लगभग सभी कम्युनिस्ट देश नाटो के सदस्य बन गए।

रूस और अमेरिका के बीच संबंध कुछ समय तक अच्छे भी रहे। लेकिन अमेरिका द्वारा नाटो का रूस की पश्चिमी सीमा तक विस्तार कर देने और वहां अमेरिकी मिसाइल तैनात करने से ये संबंध पुनः बिगड़ने लगे। नाटो-गुट रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन का घोर विरोधी है। उन्हें तानाशाह, विस्तारवादी और धूर्त बताता है, इसलिए रूस फ़िलहाल हमेशा नाटो के निशाने पर रहता है।

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